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    राजस्थानी कठपुतली नृत्य कला प्रदर्शन

मंगलवार, 10 नवंबर 2020

क्रांतिकारी ज्वाला प्रसाद जिज्ञासु(Krantikari Jwala Prasad Jigyashu)

क्रांतिकारी ज्वाला प्रसाद जिज्ञासु

▶ज्वाला प्रसाद जिज्ञासु ने धौलपुर में 'आर्य समाज' के माध्यम से समाज सुधार एवं राष्ट्रीय चेतना पैदा करने का कार्य किया।

▶1934 ई. में जौहरी लाल इन्दु के साथ मिलकर इन्होंने 'नागरी प्रचारिणी सभा' की स्थापना की। इन्होंने हरिजन सेवा का कार्य भी किया तथा सरकारी व सार्वजनिक विद्यालयों में हरिजन बालकों के पढ़ने पर रुकावट को दूर करवाया।

▶ 1938 ई. में ज्वाला प्रसाद और जौहरी लाल इन्दु ने मिलकर धौलपुर प्रजामण्डल' की स्थापना की। प्रजामण्डल का उद्देश्य उत्तरदायी शासन की स्थापना करना था। राज्य के दमन के फलस्वरूप ज्वाला प्रसाद ने आगरा से आंदोलन का संचालन किया।

▶1942 ई. के 'भारत छोड़ो' आन्दोलन के दौरान धौलपुर में कांग्रेस की स्थापना की गयी। 'तरवीभरा' गाँव में कांग्रेस की एक सभा में राज्याधिकारियों ने गोली चला दी जिसके फलस्वरूप 'ठाकुर छत्रसिंह' एवं 'पंचमसिंह' घटना स्थल पर ही शहीद हो गए। जिज्ञासु की राजनीतिक गतिविधियों के कारण राज्य सरकार ने इनके परिवार को तंग किया। फिर भी ज्वाला प्रसाद धौलपुर की जनता के लिए संघर्ष करते रहे।


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सोमवार, 9 नवंबर 2020

कविराजा बांकीदास जी आसिया का जीवन परिचय (Biography Bankidas Ji Asiya)

कविराजा बांकीदास जी आसिया का जीवन परिचय (Biography Bankidas Ji Asiya)

बांकीदास जी आसिया

▶बांकीदास जी का जन्म आसिया शाखा के चारण वंश में पचपदरा परगने के भांडीयावास गाँव में हुआ।

▶रामपुर के ठाकुर अर्जुनसिंह ने इनकी शिक्षा का प्रबन्ध जोधपुर में किया। यहाँ बांकीदास जी जोधपुर महाराजा मानसिंह के गुरु देवनाथ के सम्पर्क में आये, जिन्होंने इनका परिचय मानसिंह से कराया। मानसिंह ने इनकी विद्वता से प्रभावित होकर प्रथम भेंट में ही इन्हें 'लाख पसाव' पुरस्कार से सम्मानित किया।

▶बांकीदास जी डिंगल, पिंगल, संस्कृत, फारसी आदि भाषाओं के ज्ञाता थे। आशु कवि के रूप में उनकी प्रसिद्धि पूरे राजपूताना में थी।

▶बांकीदास जी में स्वाभिमान एवं निर्भीकता के गुण विद्यमान थे। उन्होंने राजकुमार छत्रसिंह को शिक्षा देने में असमर्थता व्यक्त कर दी, क्योंकि वह अयोग्य था।

▶इन्होने महाराजा मानसिंह को नाथ सम्प्रदाय के बढ़ते हुए प्रभाव के प्रति आगाह किया, जिससे मानसिंह क्रोधित हो गया। स्वाभिमानी बांकीदासजी ने जोधपुर छोड़ दिया, जिसे महाराजा ने ससम्मान वापस बुलवाया।

▶बांकीदासजी इतिहास को वार्ता द्वारा व्यक्त करने में प्रवीण थे। एक ईरानी सरदार ने अपनी जोधपुर यात्रा के दौरान किसी इतिहासवेत्ता से मिलने की इच्छा प्रकट की तो, महाराजा मानसिंह ने उसे बांकीदास जी से मिलवाया। बांकीदास जी से वार्ता के बाद उसने स्वीकार किया कि ईरान के इतिहास का ज्ञान मुझसे कहीं अधिक बांकीदासजी को है।

▶19 जुलाई, 1933 को जोधपुर में बांकीदास की मृत्यु हो गई।

▶बांकीदास जी द्वारा लिखे गये 36 काव्य ग्रन्थ प्राप्त हैं। जिनमें सूर छत्तीसी, गंगालहरी, वीर विनोद आदि महत्त्वपूर्ण हैं। किन्तु बांकीदास की महत्त्वपूर्ण कृति 'ख्यात' है। |

▶1956 ई. में नरोत्तमदास स्वामी ने बांकीदासजी की ख्यात को प्रकाशित किया। ख्यात दो प्रकार से लिखी हुई प्राप्त होती है संलग्न और फुटकर ख्यात। प्रथम प्रकार को ख्यात में विषय क्रमबद्ध और निरन्तर रहता है, जबकि द्वितीय प्रकार की ख्यात म विषय विश्रृंखल, अलग-अलग और बातों के रूप में मिला है।

▶बांकीदासजी की ख्यात में लिखी 'ऐतिहासिक-बातें' संक्षिप्त लिपि अथवा तार की संक्षिप्त भाषा के समान लिखी हई वहद विषय की सचना स्रोत हैं, जैसे बात संख्या 2774-जीवनसिंध पाहाड़ दिली राज कियो" इनकी ख्यात में कुल बातों की संख्या 2776 है। इन बातों से राजस्थान के इतिहास के साथ पडोसी राज्यों के इतिहास सम्बन्धी तथा मराठा, सिक्ख, जोगी, मुसलमान, फिरंगी आदि की ऐतिहासिक सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। सर्वाधिक विवरण मारवाड तथा देश के अन्य राठौड राज्यों के सम्बन्ध में है। मेवाड़ की राजनीतिक घटनाओं का भी ख्यात में वर्णन मिलता है। गहलोतों के साथ ही यादवों की बात, कछवाहों की बात, पड़िहारों की बात, चौहानों की बात में अलगअलग राज्यों के इतिहास वृत्तान्तों की सूचनाएँ संगृहीत हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न जातियों, धार्मिक तथा फुटकर विषयक बातों के साथ-साथ भौगोलिक बातों का समावेश ख्यात की मुख्य विशेषता है। वस्तुतः बांकीदास की ख्यात इतिहास का खजाना है।




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शनिवार, 7 नवंबर 2020

राजस्थान कि क्षेत्रीय बोलियाँ Regional dialects(boliya) of Rajasthan

राजस्थान कि क्षेत्रीय बोलियाँ

डॉ. ग्रियर्सन ने राजस्थानी बोलियों को पाँच मुख्य वर्गों में विभक्त किया है। मगर सामान्यतया राजस्थान की बोलियों को दो भागों में बाँटा जा सकता है

क. पश्चिमी राजस्थानी-मारवाड़ी, मेवाड़ी, बागड़ी, शेखावाटी।
ख. पूर्वी राजस्थानी-ढूंढाड़ी, हाड़ौती, मेवाती, अहीरवाटी (राठी)।

1. मारवाड़ी

पश्चिमी राजस्थान की प्रमुख बोली मारवाड़ी क्षेत्रफल की दृष्टी से राजस्थानी बोलियों में प्रथम स्थान रखती है। यह मुख्य रूप से जोधपुर, पाली, बीकानेर, नागौर, सिरोही, जैसलमेर, आदि जिलों में बोली जाती है। मेवाड़ी, बागड़ी, शेखावाटी, नागौरी, खैराड़ी, गोड़वाड़ी आदि इसकी उपबोलियाँ हैं। विशुद्ध मारवाड़ी जोधपुर क्षेत्र में बोली जाती है। मारवाडी बोली के साहित्यिक रूप को 'डिंगल' कहा जाता है। मारवाडी बोली का साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। अधिकांश जैन साहित्य 'मारवाड़ी' बोली में ही लिखा गया है। राजिया के सोरठे, वेलि किसन रूकमणी री, ढोला-मरवण, मूमल आदि लोकप्रिय काव्य इसी बोली में हैं।

2. मेवाड़ी

मेवाड़ी बोली उदयपुर, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़ व राजसमन्द जिलों के अधिकांश भाग में बोली जाती है। मेवाड़ी बोली में साहित्य सर्जना कम हुई है। फिर भी इस बोली की अपनी साहित्यिक परम्परा है। कुम्भा की 'कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति' में मेवाडी बोली का प्रयोग किया गया है। मोतीलाल मेनारिया ने मेवाड़ी को मारवाड़ी की ही उपबोली माना है। मेवाड़ी तथा मारवाडी बोली की भाषागत विशेषताओं में साम्य है। इसी कारण मारवाडी साहित्य में मेवाड़ी का भी योगदान है। मेवाड़ी में 'ए' और 'ओ' को ध्वनि का विशेष प्रयोग होता है। मारवाड़ के बाद यह राजस्थान की दूसरी महत्त्वपूर्ण बोली है।

3. बागड़ी

डूंगरपुर और बाँसवाडा का सम्मिलित क्षेत्र 'बागड़' कहलाता है इस क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली 'बागडी' कहलाती है। बागड़ प्रदेश गुजरात के निकट है, इस कारण इस बोली पर गुजराती प्रभाव भी परिलक्षित होता है। यह बोली मेवाड़ के दक्षिणी भाग, अरावली प्रदेश एवं मालवा तक बोली जाती है। ग्रियर्सन ने इसे 'भीली' बोली कहा है। इसमें 'च' और 'छ' का उच्चारण 'स' किया जाता है तथा भूतकालिक सहायक क्रिया 'था' के स्थान पर 'हतो' का प्रयोग किया जाता है। इस बोली में प्रकाशित साहित्य का लगभग अभाव है।

4. ढूंढाड़ी

ढूँढाडी पूर्वी राजस्थान की प्रमुख बोली है जो किशनगढ़, जयपुर, टोंक, अजमेर, और मेरवाड़ा के पूर्वी भागों में बोली जाती है। यह बोली गुजराती एवं ब्रजभाषा से प्रभावित है। हाड़ौती, तोरावाटी, चौरासी, अजमेरी, किशनगढ़ी आदि इसकी प्रमुख उपबोलियाँ हैं। दादूपंथ का अधिकांश साहित्य इसी बोली में लिपिबद्ध है। ईसाई मिशनरियों ने बाईबिल का ढूँढाड़ी अनुवाद भी प्रकाशित किया था। साहित्य की दृष्टि से समृद्ध है। इस बोली में वर्तमान काल के लिए, 'छै' एवं भूतकाल के लिए 'छी', 'छौ' का प्रयोग होता है।

5. मेवाती

मेवाती बोली अलवर, भरतपुर, धौलपुर, और करौली के पूर्वी भाग में बोला जाती है। मेवाती बोली पर ब्रजभाषा का प्रभाव दष्टिगत होता है। साहित्य का दृष्टि से यह बोली समृद्ध है। संत लालदास, चरणदास, दयाबाई, सहजोबाई, डूंगरसिह आप की रचनाएँ मेवाती बोली में हैं।

6. मालवी

मालवी बाला झालावाड़, कोटा एवं प्रतापगढ के कछ क्षेत्रों में बोली जाती है। यह कोमल एवं मधुर बोली है। इसकी विशेषता सम्पर्ण क्षेत्र में इसकी एकरूपता है। काल रचना में हो, ही के स्थान पर थो, थी का प्रयोग होता है। इस बोला पर गुजराती एवं मराठी भाषा का भी न्यूनाधिक प्रभाव देखने को मिलता है।

7. हाडौती

कोटा, बून्दी, बारां और झालावाड़ क्षेत्र को हाड़ौती कहा जाता है। इस क्षेत्र में प्रचलित बोली हाड़ौती कहलाती है। इसे ढूंढाड़ी की उपबोली माना जाता है। इस बोली पर गुजराती व मारवाड़ी का प्रभाव भी है। बून्दी के प्रसिद्ध कवि सूर्यमल्ल मीसण की रचनाओं में हाड़ौती का प्रयोग मिलता है।

8. अहीरवाटी (राठी)

अहीरवाटी बोली अलवर जिले की बहरोड, मुण्डावर तथा किशनगढ़ के पश्चिमी भाग व जयपुर जिले की कोटपूतली तहसील में बोली जाती है। प्राचीन काल में आभीर जाति की एक पट्टी इस क्षेत्र में आबाद हो जाने से यह क्षेत्र अहीरवाटी या हीरवाल कहा जाता है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस बोली क्षेत्र को राठ एवं यहाँ की बोली को राठी भी कहा जाता है। यह देवनागरी, गुरुमुखी तथा फारसी लिपि में भी लिखी मिलती है। कवि जोधराज का हम्मीर रासो' और शंकरराव का 'भीमविलास' इसी बोली में हैं।

9. रांगड़ी

यह बोली मुख्यतः राजपूतों में प्रचलित है, जिसमें मारवाड़ी एवं मालवी का मिश्रण पाया जाता है। यह बोली कर्कशता लिए होती है।



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बुधवार, 4 नवंबर 2020

राजस्थान का भील जनजाति आन्दोलन ( Bhil tribe movement of Rajasthan)

राजस्थान का भील जनजाति आन्दोलन

▶ राष्ट्रीय विचारधारा से प्रभावित कुछ ऐसे जन-सेवक पैदा हुए, जिन्होंने इन जातियों में जागृति का शंख फूंका और इन्हें अपने अधिकारों का भान कराया। ऐसे जन-सेवकों में प्रमुख थे स्वनामधन्य 'गुरुगोविन्द'

 ▶ श्री गोविन्द का जन्म सन् 1858 में डूंगरपुर राज्य के बांसिया ग्राम में एक बनजारे के घर में हुआ था। उन्होंने एक गाँव के पुजारी की सहायता से अक्षरज्ञान प्राप्त किया।

▶ वे स्वामी दयानन्द सरस्वती की प्रेरणा से युवावस्था में ही जन-जातियों की सेवा में जुट गये। उन्होंने आदिवासियों की सेवा हेतु सन् 1883 में सम्प सभा की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने मेवाड़, डूंगरपुर, ईडर, गुजरात, विजयनगर और मालवा के भील और गरासियों को संगठित किया। उन्होंने एक ओर उक्त जातियों में व्याप्त सामाजिक बुराइयों और कुरीतियों को दूर करने का प्रयत्न किया तो दूसरी ओर उनको अपने मूलभूत अधिकारों का अहसास कराया। वे शीघ्र ही इन जातियों में लोकप्रिय हो गये। लोग उन्हें श्रद्धा से गुरु गोविन्द के नाम से सम्बोधित करने लगे।

▶ गरु गोविन्द ने सम्प सभा का प्रथम अधिवेशन सन् 1903 में गुजरात में लिया की पहाड़ी पर किया। इस अधिवेशन में गुरु गोविन्द के प्रवचनों से प्रभावित होकर भील-गरासियों ने शराब छोड़ने, बच्चों को पढ़ाने और आपस के झगडे अपनी जा ही निपटाने की शपथ ली। गुरु गोविन्द ने उन्हें बैठ-बेगार और गैरवाजिब लागने के लिये आह्वान किया। इस प्रकार हर वर्ष आश्विन शुक्ला पूर्णिमा को मानागढ की पसार पर सम्प सभा का अधिवेशन होने लगा। भील गारसियों में दिन-प्रति-दिन बढती हुई जा से आस-पास की रियासतों के शासक सहम उठे। उन्हें भय हो गया कि ये जनजाति सुसंगठित होकर भील राज्य की स्थापना करेगी। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से प्रार्थना की कि भीलों के इस संगठन को सख्ती से दबा दिया जाये।

▶हर वर्ष की भाँति सन 1908 की आश्विन शुक्ला पूर्णिमा को मानगढ़ की पहाड़ी पर सम्प-सभा का विराट् अधिवेशन हुआ, जिसमें भारी संख्या में भील स्त्री-पुरुष शामिल हुए। मानगढ़ की पहाड़ी चारों ओर से ब्रिटिश सेना द्वारा घेर ली गयी। उसने भीड़ पर गोलियों की बौछार कर दी। फलस्वरूप 1500 आदिवासी घटनास्थल पर ही शहीद हो गये और हजारों घायल हो गए। गुरु गोविन्द और उनकी पत्नी को गिरफ्तार कर लिया गया। गुरु गोविन्द को अदालत द्वारा फाँसी की सजा दी गयी। मगर भीलों में प्रतिक्रिया होने के डर से सरकार ने उनकी यह सजा 20 वर्ष के कारावास में बदल दी, पर वे 10 वर्ष बाद ही रिहा कर दिये गये। गुरु गोविन्द ने अपना शेष जीवन गुजरात के कम्बोई नामक स्थान पर बिताया। 75 से अधिक वर्ष बीत जाने के बावजूद आज भी भील लोग गुरुगोविन्द की याद में मानागढ़ की पहाड़ी पर हर वर्ष आश्विन शुक्ला पूर्णिमा को एकत्र होकर उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
▶ राजस्थान के आदिवासियों में गुरु गोविन्द के बाद जिनको सबसे अधिक स्मरण किया जाता है, वे हैं, स्व. श्री मोतीलाल तेजावत।

▶ सन् 1886 में मेवाड़ के आदिवासी क्षेत्र फलासिया के कोलियारी ग्राम में एक ओसवाल परिवार में उत्पन्न श्री तेजावत उस जमाने के मुताबिक थोड़ा बहुत पढ़-लिखकर झाड़ोल ठिकाने के कामदार बन गये। परन्तु थोड़े ही समय में ठिकाने और सरकार द्वारा आदिवासियों पर ढाये जाने वाले जुल्मों से उद्वेलित होकर उन्होंने ठिकाने की नौकरी को तिलांजलि दे दी। वे अब आदिवासियों की सेवा में तल्लीन हो गये।

▶ उन्होंने सन् 1921 झाडोल, कोटड़ा, मादड़ी आदि क्षेत्रों के भीलों को जागीरदारों द्वारा ली जाने वाली बैठ-बेगार और लाग-बागों के प्रश्न को लेकर संगठित किया। धीरे-धीरे यह आन्दोलन सिरोही, दांता, पालनपूर, ईडर, विजयनगर आदि राज्यों में फैल गया।

▶ श्री तेजावत ने बैठ-बेगार और लाल-बाग समाप्त करने सम्बन्धी मांगों को लेकर आस-पास की रियासतों के भीलों का एक विशाल सम्मेलन विजयनगर राज्य के नीमड़ा गाँव में आयोजित किया। मेवाड और अन्य पडोसी राज्यों की सरकारें भीलों में बढ़ती हुई जागति से भयभीत हो गयीं। अत: उक्त राज्यों की सेनायें भीलों के आन्दोलन को दबान के लिये नीमड़ा पहुँच गयीं। वहाँ पर विभिन्न राज्यों के अधिकारियों ने एक ओर भील प्रतिनिधियों को समझौता वार्ता में उलझाया और दूसरी ओर सेना ने सम्मेलन को घेर कर गोलियां चलाना आरम्भ कर दिया। इस नर-संहार में 1200 भील मारे गये और हजारों घायल हो गये |

▶ भील नेता तेजावतजी स्वयं पैर में गोली लगने से घायल हो गये। लोग उन्हें उठाकर सुरक्षत स्थान पर ले गये। मेवाड. सिरोही आदि राज्यों की पलिस ने उनकी गिरफ्तारी के लिये अनेक प्रयत्न किये पर उन्हें सफलता नहीं मिली। अन्त में 8 वर्ष बाद सन् 1929 में महात्मा गाँधी की सलाह पर तेजावतजी ने अपने आपको ईडर पलिस, के सपर्द कर दिया। वहाँ से उन्हें मेवाड लाया गया, जहाँ वे 7 वर्ष तक सेन्ट्रल जेल, उदयपुर में कैद रहे। उन्हें सन् 1936 में जेल से तो रिहा कर दिया गया, पर उदयपुर में नजरबन्द कर दिया गया।

▶सन् 1942 में उन्हें 'भारत छोडो' आन्दोलन के दौरान पुनः जेल में बन्द कर दिया गया। सन् 1945 में उन्हें जेल से रिहा किया गया, पर फिर उनके उदयपुर से बाहर जाने पर पाबन्दी लगा दी गयी जो देश के आजाद होने तक चालू रही। उन्होंने अपना शेष जीवन सामाजिक सेवाओं में गुजारा। उनका देहान्त 5 दिसम्बर, सन् 1963 को हुआ।

▶भील-गरासियों के लिये देश की आजादी के पूर्व अन्य जिन जन-सेवकों ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया, उनमें प्रमुख थे- सर्वश्री माणिक्यलाल वर्मा, भोगीलाल पांड्या, मामा बालेश्वर दयाल, बलवन्तसिंह मेहता, हरिदेव जोशी एवं गौरीशंकर उपाध्याय। उन्होंने भील क्षेत्रों में जगह-जगह शिक्षण संस्थायें, प्रौढ़ शालायें और होस्टल आदि स्थापित कर भील और गरासियों में नये जीवन का संचार किया


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सोमवार, 2 नवंबर 2020

भारत के भू-आकृतिक प्रदेश( Geophysical regions of India)

भारत के भू-आकृतिक प्रदेश ( Geophysical regions of India)

1.उत्तरी पर्वतीय प्रदेश

उच्च धरातल, हिमाच्छादित चोटियां गहरा व कटा-फटा धरातल, पूर्वगामी जलप्रवाह,जटिल भूगर्भीय संरचना और उपोष्ण अक्षांशों में मिलने वाली शीतोष्ण सघन वनस्पति आदि विशेषताए भारत के इस पर्वतीय भाग को अन्य धरातलीय भू-भागों से अलग करती है। पूर्व से पश्चिम कि में इसकी लम्बाई 2400 किमी. एवं देशांतरीय फैलाव 22° देशांतर तक है और इसकी चौडाई 160 से 500 किमी. के बीच पाई जाती है। इसकी औसत ऊंचाई 6000 मीटर है। यह नवीन वलन पर्वत है। इनको बनाने में दबाव की शक्तियों अथवा समानान्तर भू-गतिया का अधिक योगदान है।

2. विशाल उत्तरी मैदानी प्रदेश


 यह मैदान प्रायद्वीपीय भारत को बाह्य-प्रायद्वीपीय भारत से अलग करता है। यह नवीनतम भखण्ड है, जो हिमालय की उत्पत्ति के बाद बना है। यह सिन्धू गंगा ब्रहमपुत्र का प्रमुख भाग है, जो कि भौगोलिक दृष्टि से एक खण्ड है, जिसे भारत, पाकिस्तान बंगलादेश के राजनीतिक विभाजन ने अलग कर दिया है। इस मैदान की लम्बाई पूर्व-पश्चिम दिशा में 2400 किमी है, लेकिन चौड़ाई में भिन्नता पाई जाती है, जो क्रमशः पश्चिम से पूर्व की ओर कम होती जाती पश्चिम में इसकी चौड़ाई 500 किमी. है तथा पूर्व में इसकी चौड़ाई घटकर 145 किमी. रह जाती थी। इसकी औसत समुद्र तल से ऊंचाई 150 मीटर है। अपनी उच्च उर्वरता के लिए यह मैदान विश्व प्रसिद्ध है और प्राचीनकाल से ही सभ्यता एवं संस्कृति का पालना रहा है।

3. प्रायद्वीपीय पठारी प्रदेश

भारत का प्रायद्वीपीय पठारी भाग त्रिभुजाकार है। यह क्षेत्र सभी तरफ से पहाड़ियों से घिरा है। इसके उत्तर में अरावली, विन्ध्य, सतपुड़ा, भारनेर और राजमहल पहाड़ियां हैं। पश्चिम में सह्याद्रि तथा पूर्व में पूर्वी घाट स्थित है। सम्पूर्ण पठारी भाग की लम्बाई उत्तर से दक्षिण में 1600 किमी. तथा पूर्व-पश्चिम में 1400 किमी. है। यह कुल 16 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में स्थित है। यह पठार भारत का प्राचीनतम् भू-खण्ड है, जिसकी औसत ऊंचाई 600-900 मीटर तक है। इस क्षेत्र का सामान्य ढलान पश्चिम से पूर्व की ओर है। अपवाद के तौर पर नर्मदा-ताप्ती के भ्रंश भाग में ढलान पूर्व से पश्चिम की ओर है। विभिन्न पर्वतों की उपस्थिति के फलस्वरूप यह पठार कई छोटे-छोटे पठारा में विभाजित हो गया है।

4.तटीय मैदानी प्रदेश

भारत की तट रेखा पश्चिम में कच्छ के रन से लेकर पूर्व में गंगा-ब्रह्मपुत्र तक फैली है ये तट व तटीय मैदान संरचना व धरातल की दष्टि से स्पष्ट विभिन्नताएं रखते हैं ये पश्चिमा भाग में पश्चिमी तटीय मैदान तथा पर्वी भाग में पर्वी तटीय मैदान के नाम से जाने जाते हैं 

भूआकृतिक तौर पर भारतीय तटीय मैदानों को निम्न तीन विस्तृत विभागों में बाँटा जा सकता है- (1) गुजरात तटीय मैदान (ii) पश्चिमी तटीय मैदान (iii) पुर्वी तटीय मैदान।

गुजरात तटीय मैदान का विस्तार गुजरात, दमन व दीप, दादरा एवं नगर हवेली में है।

पश्चिमी तटीय मैदान को तीन उपखंडो में बाँटा जा सकता है- (i) कोंकण मैदान (ii) कर्नाटक या कनारा तटीय मैदान (iii) केरल या मालाबार तटीय मैदान।

पूर्वी तटीय मैदान इसे भी तीन उपखण्डों में बाँटा जा सकता है- (1) तमिलनाडु मैदान (2) आंध्र प्रदेश एवं (3) उत्कल मैदान। इन सभी तटीय मैदान का विकास अलग अलग क्रियाओ के सम्मिलित प्रभावस्वरूप हआ है इन क्रियाओं में समद्री तरंग के द्वारा अपरदन तट का उन्मज्जन , निमज्जन, नदियों द्वारा लाए गए निक्षेप तथा वाय के निक्षेपणात्मक क्रिया आदि शामिल है |

5. द्वीप प्रदेश


भारत में कुल 100 से अधिक द्वीप है जो बंगाल की खाडी और अरब सागर में स्थित है जहाँ बंगाल की खाड़ी के द्वीप म्यांमार की अराकानयोमा की विस्तरित निमज्जित श्रेणी के शिखर हे वहीं अरब सागर के द्वीप प्रवाल भित्तियों के जमाव हैं। इसके अतिरिक्त गंगा के मुहाने ,मन्नार की खाडी एवं पर्वी और पश्चिमी तटों के सहारे डेल्टा जमावों से निर्मित कई अपतटीय द्वीप स्थित है। ब्रह्मपुत्र में स्थित मजुली एशिया का बहत्तम् ताजा जल वाला द्वीप है

भारतीय द्वीपों को उनके अपस्थिति के आधार पर तीन भागों में बाँट सकते हैं। (i) अरब सागर के द्वीप (ii)बंगाल कि खाड़ी के द्वीप (iii) अपतटीय द्वीप।अरब सागर स्थित लक्षद्वीप समूह के 43 द्वीप सम्मिलित हैं। बंगाल की खाडी में अंडमान निकोबार समूह में कुल 204 द्वीप हैं।

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धौलपुर प्रजामण्डल आन्दोलन (DHOULAPUR PRAJAMANDAL AANDOLAN)

धौलपुर प्रजामण्डल आन्दोलन 

▶ 1970 ई. में ज्वाला प्रसाद और यमुना प्रसाद ने धौलपुर में आचार सुधारिणी सभा' और 1911 ई. में आर्य समाज' के माध्यम से जन चेतना जागृत करने के प्रयास किये। 

▶ 1918 ई. में स्वामी श्रद्धानंद के नेतृत्व में आर्य समाज ने स्वशासन आदोलन चलाया फलतः आर्य समाज के कई कार्यकर्ताओं को जेल जाना पड़ा। 

▶ 1934 ई. में ज्वाला प्रसाद और जौहरीलाल ने धौलपुर में 'नागरों प्रचारिणी सभा की स्थापना की। सभा के तत्वावधान में पुस्तकालय और वाचनालय खोलकर जनता में राजनीतिक चेतना का प्रयास किया गया। 

▶ 1936 ई. में ज्वालाप्रसाद ने धौलपुर में हरिजनोद्धार आंदोलन चलाया। फलतः सरकार को हरिजन बालकों को सार्वजनिक स्कूलों में पढ़ने की इजाजत देनी पड़ी।

▶ 1936 ई. में कृष्णदत्त पालीवाल, मूलचंद, ज्वाला प्रसाद एवं जवाहरलाल ने 'धौलपुर प्रजामण्डल' की स्थापना की। प्रजामण्डल ने कृष्णदत्त पालीवाल के नेतृत्व में राज्य में उत्तरदायी शासन स्थापना की माँग की। 

▶14 जुलाई, 1938 को प्रजामण्डल ने राज्य में उत्तरदायी शासन स्थापित करने, प्रजामण्डल को मान्यता देने तथा इसकी शाखाएं खोलने की अनुमति देने, राजनीतिक बंदियों को जेल से मुक्त करने, आम सभा एवं हड़तालों की स्वीकृति देने को भाँग की। लेकिन सरकार ने प्रजामण्डल की इन मांगों को स्वीकार नहीं किया।

▶ अप्रैल, 1940 में भदई गाँव में पूर्वी राजपूताना के राज्यों के राजनीतिक कार्यकर्ताओं का सम्मेलन हुआ, जिसमें सभी राज्यों में उत्तरदायी शासन स्थापित करने के प्रस्ताव पारित किए गए। लेकिन धौलपुर सरकार पर इसका कोई असर नहीं पड़ा।

▶ 1947 ई. में राज्य सरकार ने सभाओं और जुलूसों पर रोक लगा दी । धौलपुर प्रजामण्डल ने राज्य के इन आदेशों की अवहेलना की। भारत छोड़ो' आंदोलन के दौरान धौलपुर में प्रजामण्डल ने आंदोलन चलाया और उत्तरदायी शासन स्थापना को माँग की।

▶ 12 नवम्बर, 1946, को तासीमों गाँव में प्रजामण्डल के अधिवेशन में पुलिस ने कार्यकर्ताओं पर अमानवीय अत्याचार किये। तासोमों गाँव के लोगों ने प्रजामण्डल की सहायता की थी, अत: गाँव वालों पर गोलियाँ चलाई गई, जिससे किसान ठाकुर छतरसिंह और पंचमसिंह मारे गए राज्य की  दमनात्मक कार्यवाही की सारे देश में आलोचना हुई। 

▶ 17-18 नवम्बर, 1947 को प्रजामण्डल ने राम मनोहर लोहिया की अध्यक्षता में धौलपुर में एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया। सम्मेलन में उत्तरदायी शासन की स्थापना, भष्टाचार और कालाबाजारी पर रोक लगाने के प्रस्ताव पारित किए गए। जनमत के दबाव के आगे महाराजा उदयभान सिंह को झुकना पड़ा। शासक ने उत्तरदायी शासन स्थापित करने एवं 'तासीमों काण्ड' की जाँच का आश्वासन दिया।

▶ 18 मार्च, 1948 को धौलपुर 'मत्स्य संघ' का हिस्सा बन गया ।


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सोमवार, 19 अक्टूबर 2020

रणथंभौर का किला (RANTHAMBHOUR FORT)

रणथंभौर का किला (RANTHAMBHOUR FORT)

▶ 'गिरी दुर्ग' रणथंभौर हमीर की आन बान शान के लिए प्रसिद्ध है। सवाई माधोपुर से 10 किलोमीटर दूर अरावली पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा हुआ रणथंभौर का किला विषम आकृति वाली ऊंची नीची  सात पर्वत श्रेणियों के मध्य स्थित है जिनके बीच में गहरी खाईया और नाले हैं ।
▶ यह किला यद्यपि एक ऊंचे पर्वत शिखर पर स्थित है मगर समीप जाने पर ही दिखाई देता है। रणथंभौर दुर्ग के निर्माण और निर्माताओं के संबंध में प्रमाणिक जानकारी अभी तक नहीं मिल सकी है ।इतिहासकारों का मानना है कि इस किले का निर्माण आठवीं शताब्दी में चौहान शासकों द्वारा करवाया गया ।
▶ किला समुद्र तल से 481 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है तथा 12 किलोमीटर की परिधि में विस्तृत है। उसके तीन तरफ गहरी खाई है ,खाईया के साथ परकोटा फिर ढलवा जमीन और दुर्गम वन है । 
▶इसकी प्राचीर पहाड़ियों के साथ एकाकार से लगती है दुर्गम भौगोलिक  स्थिति के कारण ही अबुल फजल ने लिखा है 'और दुर्गे नंगे है परंतु यह बख्तरबंद है'। 
▶ रणथंभौर का वास्तविक नाम रन्त:पुर है अर्थात रण की घाटी में स्थित नगर ।रण  उस पहाड़ी का नाम है जो किले की पहाड़ी से कुछ नीचे है एवं थंभ उसका जिस पर यह किला बना है इसी से इसका का नाम रणस्तंभपुर हो गया जो कालांतर में रणथंभौर के नाम से जाना जाता है।
▶ तराइन के द्वितीय युद्ध के बाद पृथ्वीराज चौहान तृतीय का पुत्र गोविंदराज सामंत शासक के रूप में रणथंभौर की गद्दी पर बैठा । तत्पश्चात ऐबक, इल्तुतमिश ,बलबन इस किले पर अधिकार रखने में सफल रहे। 1282 -1301 ईस्वी में हम्मीर देव चौहान यहाँ का शासक था उस समय जलालुद्दीन खिलजी ने 1292 ई. में रणथभौर पर आक्रमण किया लेकिन उसे सफलता नहीं मिली तब खिसियाकर उसने कहा "ऐसे 100 किलो को भी वह मुसलमान के एक बाल के बराबर भी नहीं मानता है" 
▶ 1301 ई. में हमीर के मंत्रियों के विश्वासघात के कारण अलाउद्दीन खिलजी किले पर अधिकार करने में सफल रहा। इस समय हम्मीर की पत्नी रंग देवी और पुत्री देवल दे के नेतृत्व में किले में जोहर हुआ जो रणथंबोर का पहला शाखा कहलाता है।
▶ राणा कुंभा, राणा सांगा का भी इस किले पर आधिपत्य रहा ।1534 ईसवी में मेवाड़ ने इसे गुजरात के शासक बहादुरशाह को सौंप दिया ।1542 ई. में यह शेरशाह सूरी एवं उसके बाद सुर्जन हाडा के अधिकार में रहा। 1569 ईसवी में रणथंबोर पर मुगल आधिपत्य स्थापित हो गया ।अकबर ने यहां शाही टकसाल स्थापित की। मुगल काल में शाही कारागार के रूप में भी इसका उपयोग किया गया ।मुगलों के पराभव काल में जयपुर महाराजा माधो सिंह ने किले पर अधिकार कर लिया। 1947 तक यह जयपुर के आधिपत्य में ही रहा ।

▶ नौलखा दरवाजा, हाथीपोल, गणेशपोल, सूरजपोल और त्रिपोलिया पोल किले के प्रमुख प्रवेश द्वार है। किले की प्रमुख इमारतों में हम्मीर महल, रानीमहल, हम्मीर की कचहरी ,सुपारी महल ,बादल महल, 32 खंभों की छतरी ,जौरा भौरा,रानिहाड तालाब, पीर सदरुद्दीन की दरगाह, लक्ष्मी नारायण मंदिर है। किले के पार्श्व में पद्मला तालाब स्थित है ।भारत प्रसिद्ध त्रिनेत्र गणेश जी का मंदिर इसी किले में स्थित है।
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