• कठपुतली चित्र

    राजस्थानी कठपुतली नृत्य कला प्रदर्शन

शनिवार, 25 अप्रैल 2015

Jewelery in the life style of women in Rajasthan-राजस्थान में महिलाओं की जीवन-शैली में आभूषण

राजस्थान में महिलाओं की जीवन-शैली में आभूषण एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते है। यूं तो राजस्थानी आभूषण महिलाओं की प्रतिदिन की साज-सज्जा का अंग है, किन्तु ये उनकी वर्तमान स्थिति (वैवाहिक स्थिति) को भी अभिव्यक्त करती है। राजस्थान में महिलाओं के सर से पाँव तक पारंपरिक आभूषण से सजने में उनकी वैवाहिक स्थिति का कड़ाई से पालन किया जाता है। राजस्थान की महिलाएं सिर ले कर पाँव तक स्वयं को सज्जित करती है। राजस्थान में ललाट के आभूषणों की एक दीर्घ परंपरा है।
इनमें से एक आभूषण बोर है। बोर को स्त्रियाँ अपनी ललाट के ठीक मध्य में पहनती है, या सर-माँग के रूप में केवल बालों के विभाजन के स्थान में पहना जाता है, अथवा यह एक माथा-पट्टी की तरह एक सिर-बंधन (हेड-बैंड) के रूप में हो सकता है। बोर या रखड़ी जिसे घुंडी या बोरला भी कहा जाता है, केश-रेखा पर ललाट के मध्य स्थल पर भूषित किया जाता है। इसे सोने या चांदी का बनाया जाता है तथा इसकी आकृति सामान्यतः गोलाकार होती है यद्यपि यह कभी-कभी समतल-शीर्ष आकार का भी रखा जाता है। इसकी सतह पर विभिन्न प्रकार की डिजाइन को आमतौर पर ग्रैन्युलेशन (दाने बनाने की प्रक्रिया) के माध्यम से बनाई जाती है। इसके पार्श्व में तथा पीछे अन्य आभूषणों को जोड़े जाने का प्रावधान भी रखा जाता है। बोर को कभी कभी लाख और स्वर्ण धातु के संयोजन से बनाया जाता है। इसके गोले के सामने एक छोटी नली जोड़ी जाती है। आमतौर पर इस आभूषण के घुमावदार फलक पर रंगीन मोती पिरोए जाते हैं। बोर के नीचे अर्ध वृत्ताकार ढांचा बनाती हुई एक चैन पहनी जाती है जो 'तिड़ीबलका' या 'तिड़ीभलका' कहलाती है। बोर विवाह का आवश्यक प्रतीक माना जाता है तथा इसे शादी की रस्में पूरी हो जाने के पश्चात् ही धारण किया जाता है।इसे वधू को दूल्हे के परिवार की ओर से भेंट किया जाता है तथा विवाहित स्त्री द्वारा इसे प्रतिदिन पहना जाता है। बोर कहा जाने वाला आभूषण सामुदायिक विभिन्नताएं परिलक्षित करता है। राजपूत , माहेश्वरी और ओसवाल जातियों में यह आभूषण सोने से बना पाया जाता है,जबकि दूसरों के लिए यह चांदी से बना होता है। मेघवाल जाति की महिलाएं मोतियों से बना बोर या कभी-कभी चांदी का एक छोटा सा ग्लोब जैसा बोर पहनती हैं। भील महिलाएं भी चांदी का बोर पहनती हैं,जिस पर सामान्यतया एक 'झाबिया' या चैन जुडी होती है और इसे अपनी जगह पर स्थिर रखने के लिए एक मोटी सूती रस्सी द्वारा सिर के पीछे के बालों से बांधा जाता है। कुछ बोर में धातु की चैन होती है जिसे 'डोरा' कहा जाता है, जो कान के पीछे घूमती हुई दोनों तरफ जुडी होती है और सिर के पीछे मजबूती से बंधी होती है।
रखड़ी जिसे घुंडी भी कहा जाता है, एक गोल एवं भारी आभूषण है। केश-रेखा पर ललाट के मध्य स्थल पर भूषित किया जाता है। इसे सोने या चांदी का बनाया जाता है। झेला कई चैनों की श्रृंखला है जो बोर के भार को संबल प्रदान करती है। साधारणतया सिर पर दो झेला पहने जाते है जो प्रत्येक कान के रिंग (ईयर-रिंग) की केन्द्रीय रॉड से गुजरते हैं तथा बोर को ललाट के केंद्र पर रखते हैं। यह आभूषण का ढांचा ललाट पर बालों को घेरे रहता है।बोर को वर्णित करने के लिए अन्य नाम सांकली, दामिनी, तथा मोरो है।
पान को डोरा के पीछे पहना जाता है जो माथे पर सीधा लेटा रहता है। इसका 'पान' नाम इसकी पान जैसी आकृति के आधार पर है। पान दिल के आकार के छोटे कट-आउट में बनाया जाता है तथा चैनों से लिपटा हुआ रहता है।
माथापट्टी एक प्रकार का हेड-बैंड होता है जो सामान्यतः सोने की बनाई जाती है। ये लोकप्रिय आभूषण है जिसे क्षेत्र के सभी समुदायों की महिलाओं द्वारा पहना जाता है। यह एक कान से प्रारंभ हो कर दूसरे कान पर समाप्त होती है तथा केश-रेखा (hairline ) पर स्थिर रहती है। इससे एक टीका या सिर-माँग जुड़ा हो सकता है तथा इसे विस्तृत शीर्ष आभूषण बनाता है। साधारणतया 'कर्ण-फूल' कहे जाने वाले ईअर-रिंग्स इसके दोनों ओर जुड़े रहते हैं। माथा-पट्टी, कर्णफूल तथा टीके का यह संयोजन "फूल-झीमका-बिन्द-सुड़ा" कहलाता है।
सेलड़ी एक लोकप्रिय केश-आभूषण है तथा यह वेणी या चोटी के अंत में पहना जाता है। सोने या चांदी से बना 5-10 से.मी. लंबा यह आभूषण शंक्वाकार होता है तथा इसके आधार में छोटी घंटियाँ लटकी रहती है।
शीशफूल का शाब्दिक अर्थ सिर का पुष्प है।सामान्यतः यह आभूषण सोने का बनाया जाता है तथा इससे फूल वाले तीन समतल लटकन (पेंडेंट) जुड़ेहोते हैं, जिसमें एक छोटा लटकन (पेंडेंट) मध्य में होता है। इस आभूषण पर बारीक कलात्मक कार्य किया जाता है। यह आभूषण पान के बाद पहना जाता है तथा यह इसके समान्तर रहता है। सिर-माँग को अपने नाम के अनुरूप सिर के बालों के विभाजन स्थल या माँग में सजाया जाता है। इस आभूषण की संरचना में मोती एवं मूल्यवान पत्थर के साथ जुड़ी चैन होती है।
टीका सिर व ललाट की सीमा रेखा पर लटका कर पहना जाने वाला आभूषण है। ये एक वृत्ताकार या दिल के आकार का आभूषण है, जिसके पीछे एक चैन जुडी होती है। यह चैन टीके को पीछे की तरफ बालों में बंधी रहती है। टीके को
तोडला भी कहा जाता है।
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मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

Historical chhatries of Rajasthanराजस्‍थान की ऐतिहासिक छतरियाँ

राजस्‍थान की ऐतिहासिक छतरियाँ
1. अमरसिंह की छतरी - नागौर
2. सिसोदिया राणाओं की छतरियाँ - आहड़ , उदयपुर
3. राव बीका जी रायसिंह की छतरियाँ - देव कुंड , बीकानेर
4. हाड़ा राजाओं की छतरियाँ - सार बाग , कोटा
5. रैदास की छतरी - चित्तौड़गढ़
6. गोपालसिंह की छतरी - करौली 
7. 84 खंभों की छतरी - बूँदी
8. राजा बख्तावर सिंह की छतरी - अलवर
9. 32 खंभों की छतरी - रणथम्भौर
10. केसर बाग व क्षार बाग की छतरियाँ - बूँदी ( बूँदी राजवंश की )
11. भाटी राजाओं की छतरियाँ - बड़ा बाग , जैसलमेर
12. राठौड़ राजाओं की छतरियाँ - मंडोर जोधपुर
13. मूसी महारानी की छतरी - अलवर
14. महाराणा प्रताप की छतरी ( 8 खंभोकी )- बाडोली ( उदयपुर )
15. कच्छवाहा राजाओं की छतरियाँ - गेटोर ( नाहरगढ़ , जयपुर )
16. राव जोधसिंह की छतरी - बदनौर
17. जयमल ( जैमल ) व कल्ला राठौड़ की छतरियाँ - चित्तौड़गढ़

बड़ा बाग़ जैसलमेर


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राजस्थानी लोक गीत घूमर एवं चम चम चमके चुन्दडी- Rajasthani folk songs Ghumar and Chamchat Chakte Chundadi

राजस्थानी लोक गीत घूमर एवं चम चम चमके चुन्दडी-

घूमर गीत

ओ म्हारी घूमर छे नखराळी ऐ माँ
घुमर रमवा म्हें जास्याँ
ओ राजरी घुमर रमवा म्हें जास्याँ
ओ म्हाने रमता ने काजळ टिकी लादयो ऐ माँ
घुमर रमवा म्हें जास्याँ
ओ राजरी घुमर रमवा म्हें जास्याँ
ओ म्हाने रमता ने लाडूङो लादयो ऐ माँ
घुमर रमवा म्हें जास्याँ .
ओ राजरी घुमर रमवा म्हें जास्याँ .
ओ म्हाने परदेशियाँ मत दीजो रे माँ
घुमर रमवा म्हें जास्याँ
ओ राजरी घुमर रमवा म्हें जास्याँ
ओ म्हाने राठोडा रे घर भल दीजो ऐ माँ
घुमर रमवा म्हें जास्याँ
ओ राजरी घुमर रमवा म्हें जास्यां
ओ म्हाने राठोडा री बोली प्यारी लागे ऐ माँ
घुमर रमवा म्हें जास्याँ
ओ राजरी घुमर रमवा म्हें जास्यां
ओ म्हारी घुमर छे नखराळी ऐ माँ
घुमर रमवा म्हें जास्याँ ..


चम चम चमके चुन्दडी गीत

चम चम चमके चुन्दडी बिण्जारा रे
कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे
चम चम चमके चुन्दडी बिण्जारा रे
चम चम चमके चुन्दडी बिण्जारा रे
कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे
कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे
म्हारी तो रंग दे चुन्दडी बिण्जारा रे
म्हारे साहेबा रो , म्हारे पिवजी रो , म्हारा साहेबा रो रंगदे रूमाल रे बिण्जारा रे
म्हारा साहेबा रो रंगदे रूमाल रे बिण्जारा रे
चम चम चमके चुन्दडी बिण्जारा रे
कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे
कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे
जोधाणा सरीखा पैर मैं बिण्जारा रे
कोई सोनो तो घड़े रे सुनार रे बिण्जारा रे
कोई सोनो तो घड़े रे सुनार रे बिण्जारा रे
चम चम चमके चुन्दडी बिण्जारा रे
कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे
कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे
पायल घड़ दे बाजणी बिण्जारा रे
म्हारी नथली पळ्कादार रे बिण्जारा रे
म्हारी नथली पळ्कादार रे बिण्जारा रे
चम चम चमके चुन्दडी बिण्जारा रे
कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे
कोई थोडो सो म्हारे सामे झांक रे बिण्जारा रे

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राजस्थानी संगीत गोरबंद

गोरबंद
लड़ली लूमा झूमा ऐ लड़ली लूमा झुमा ऐ
ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो
ओ लड़ली लूमा झूमा ऐ लड़ली लूमा झुमा ऐ
ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो

ऐ ऐ ऐ गायाँ चरावती गोरबन्द गुंथियों
तो भेंसयाने चरावती मैं पोयो पोयो राज मैं तो पोयो पोयो राज
म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो
ओ लड़ली लूमा झूमा ऐ लड़ली लूमा झुमा ऐ
ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो

ऐ ऐ ऐ ऐ खारासमद सूं कोडा मंगाया
तो बिकाणे तो गड़ बिकाणे जाए पोया पोया राज मैं तो पोया पोया राज
म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो
ओ लड़ली लूमा झूमा ऐ लड़ली लूमा झुमा ऐ
ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो

ऐ ऐ ऐ ऐ देराणी जिठणी मिल गोरबन्द गुंथियों
तो नडदल साचा मोती पोया पोया राज मैं तो पोया पोया राज
म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो
ओ लड़ली लूमा झूमा ऐ लड़ली लूमा झुमा ऐ
ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नाखारालो

ऐ ऐ ऐ ऐ कांच री किवाडी माथे गोरबन्द टांकयो
तो देखता को हिवडो हरखे ओ राज हिवडो हरखे ओ राज
म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो
ओ लड़ली लूमा झूमा ऐ लड़ली लूमा झुमा ऐ
ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नाखारालो

ऐ ऐ ऐ ऐ डूंगर चढ़ ने गोरबन्द गायो
तो झोधाणा तो झोधाणा क केडी हैलो सांभळो जी राज हैलो सांभळो जी राज
म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो
ओ लड़ली लूमा झूमा ऐ लड़ली लूमा झुमा ऐ
ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नाखारालो

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परीक्षा मार्गदर्शन प्रश्नोत्तरी(भाग -1)

परीक्षा मार्गदर्शन प्रश्नोत्तरी-
1. राजस्थान का जिब्राल्टर दुर्ग किसे कहा जाता है?
(अ) लोहागढ़ को
(ब) तारागढ़ (अजयमेरु)को
(स) तिमनगढ़ को
(द) चित्तौड़गढ़ को
उत्तर- ब
2. बछबारस त्यौहार किस दिन मनाया जाता है?
(अ) चैत्र कृष्णा एकादशी को
(ब) भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को
(स) भाद्रपद कृष्णा द्वादशी को
(द) आश्विन कृष्णा द्वादशी को
उत्तर- स
3. किस दुर्ग के बारे में अबुलफजलने कहा था- "यह दुर्ग पहाडियों के बीच है, इसीलिए कहते हैं कि बाकि दुर्ग तो नंगे है किन्तु यह बख्तरबंद किला है?
(अ) लोहागढ़
(ब) तारागढ़ (अजयमेरु)
(स) रणथम्भौर
(द) चित्तौड़गढ़
उत्तर- स
4. बाबू महाराज का मेला कहाँ भरता है?
(अ) अलवर
(ब) धौलपुर
(स) अजमेर
(द) चित्तौड़गढ़
उत्तर- ब
5. पिंजारा क्या है?
(अ) पालकी उठाने वाली जाति
(ब) एक वाद्य यंत्र
(स) विवाह की एक रस्म
(द) रुईधुनने वाली एक जाति
उत्तर- द
6. प्रसिद्ध व्यक्तित्व अतुल कनक है?
(अ) न्यायविद
(ब) राजस्थानी साहित्यकार
(स) लोक नर्तक
(द) लोक गायक
उत्तर- ब
7. प्रसिद्ध व्यक्तित्व अल्लाहजिलाई बाई सम्बंधित है?
(अ) ब्लू पॉटरी से
(ब) राजस्थानी साहित्य से
(स) लोक नृत्य से
(द) लोक गायन से
उत्तर- द
8. राजस्थान की प्रथम विधानसभा के अध्यक्ष कौन थे?
(अ) श्री लाल सिंह शक्तावत
(ब) श्री गिरिराज प्रसाद तिवाड़ी
(स) श्री नरोत्तम लाल जोशी
(द) श्री रामनारायण चौधरी
उत्तर- स
9. धावा डोली अभयारण किसके संरक्षण के लिए प्रसिद्ध है?
(अ) उड़न गिलहरी के
(ब) कृष्ण मृग के
(स) गोडावण के
(द) चिंकारा के
उत्तर- ब
10. बुड्डा जोहड़ का मेला प्रतिवर्ष किस जिले मेंभरता है?
(अ) अलवर में
(ब) धौलपुर में
(स) अजमेर में
(द) श्रीगंगानगर में
उत्तर- द
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राजस्थान के रिति रिवाज एवं प्रथाए (भाग-1)

आठवाँ पूजन
स्त्री के गर्भवती होने के सात माह पूरे कर लेती है तब इष्ट देव का पूजन किया जाता है और प्रीतिभोज किया जाता है। पनघट पूजन या जलमा पूजन बच्चे के जन्म के कुछ दिनों पश्चात (सवा माह बाद) पनघट पूजन या कुआँ पूजन की रस्म की जाती है इसे जलमा पूजन भी कहते हैं।
आख्या
बालक के जन्म के आठवें दिन बहने जच्चा को आख्या करती है और एक मांगलिक चिह्न 'साथिया' भेंट करती है।
जड़ूला उतारना
जब बालक दो या तीन वर्ष का हो जाता है तो उसके बाल उतराए जाते हैं। वस्तुतः मुंडन संस्कार को ही जडूला कहते हैं।
सगाई
वधू पक्ष की ओर से संबंध तय होने पर सामर्थ्य अनुसार शगुन के रुपयेतथा नारियल दिया जाता है।
बिनौरा
सगे संबंधी व गाँव के अन्य लोग अपने घरों में वर या वधू तथा उसके परिवार को बुला कर भोजन कराते हैं जिसे बिनौरा कहते हैं।
तोरण
तोरण
यह जब बारात लेकर कन्या के घर पहुँचता है तो घोड़ी पर बैठे हुए ही घर के दरवाजे पर बँधे हुए तोरण को तलवार से छूता है जिसे तोरण मारना कहते हैं। तोरण एक प्रकार का मांगलिक चिह्न है।
खेतपाल पूजन
राजस्थान में विवाह का कार्यक्रम आठ दस दिनों पूर्व ही प्रारंभ हो जाते हैं। विवाह से पूर्व गणपति स्थापना से पूर्व के रविवार को खेतपाल बावजी (क्षेत्रपाल लोकदेवता) की पूजा की जाती है।
कांकन डोरडा
विवाह से पूर्व गणपति स्थापना के समय तेल पूजन कर वर या वधू के दाएँ हाथ में मौली या लच्छा को बंट कर बनाया गया एक डोरा बाँधते हैं जिसे कांकन डोरडा कहते हैं। विवाह के बाद वर के घर में वर-वधू एक दूसरे के कांकन डोरडा खोलते हैं।
बान बैठना व पीठी करना
लग्नपत्र पहुँचने के बाद गणेश पूजन (कांकन डोरडा) पश्चात विवाह से पूर्व तक प्रतिदिन वर व वधू को अपने अपने घर में चौकी पर बैठा कर गेहूँ का आटा, बेसन में हल्दी व तेल मिला कर बने उबटन (पीठी) से बदन को मला जाता है, जिसको पीठी करना कहते हैं। इस समय सुहागन स्त्रियाँ मांगलिक गीत गाती है। इस रस्म को 'बान बैठना' कहते हैं।
बिन्दोली
विवाह से पूर्व के दिनों में वर व वधू को सजा धजा और घोड़ी पर बैठा कर गाँव में घुमाया जाता है जिसे बिन्दोली निकालना कहते हैं।
मोड़ बाँधना
विवाह के दिन सुहागिन स्त्रियाँ वर को नहला धुला कर सुसज्जित कर कुलदेवता के समक्ष चौकी पर बैठा कर उसकी पाग पर मोड़ (एक मुकुट) बांधती है।
बरी पड़ला
विवाह के समय बारात के साथ वर के घर से वधू को साड़ियाँ व अन्य कपड़े, आभूषण, मेवा, मिष्ठान आदि की भेंट वधू के घर पर जाकर दी जाती है जिसे पड़ला कहते हैं। इस भेंट किए गए कपड़ों को 'पड़ले का वेश' कहते हैं। फेरों के समय इन्हें पहना जाता है।
मारत
विवाह से एक दिन पूर्व घर में रतजगा होता है, देवी-देवताओं की पूजा होती है और मांगलिक गीत गाए जाते हैं। इस दिन परिजनों को भोजन भी करवाया जाता है। इसे मारत कहते हैं।
पहरावणी या रंगबरी
विवाह के पश्चात दूसरे दिन बारात विदा की जाती है। विदाई में वर सहित प्रत्येक बाराती को वधूपक्ष की ओर से पगड़ी बँधाई जाती है तथा यथा शक्ति नगद राशि दी जाती है। इसे पहरावणी कहा जाता है।
सामेला
जब बारात दुल्हन के गांव पहुंचती है तो वर पक्ष की ओर से नाई या ब्राह्मण आगे जाकर कन्यापक्ष को बारात के आने की सूचना देता है। कन्या पक्ष की ओर उसे नारियल एवं दक्षिणा दी जाती है। फिर वधू का पिता अपने सगे संबंधियों के साथ बारात का स्वागत करता है, स्वागत की यह क्रिया सामेला कहलाती है।
बढार
विवाह के अवसर पर दूसरे दिन दिया जाने वाला सामूहिक प्रीतिभोज बढार कहलाता है।
कुँवर कलेवा
सामेला के समय वधू पक्ष की ओर से वर व बारात के अल्पाहार के लिए सामग्री दी जाती है जिसे कुँवर कलेवा कहते हैं।
बींद गोठ
विवाह के दूसरे दिन संपूर्ण बारात के लोग वधू के घर से कुछ दूर कुएँ या तालाब पर जाकर स्थान इत्यादि करने के पश्चात अल्पाहार करते हैं जिसमें वर पक्ष की ओर से दिए गए कुँवर-कलेवे की सामग्री का प्रयोग करते है। इसे बींद गोठ कहते हैं।
मायरा
राजस्थान में मायरा भरना विवाह के समय की एक रस्म है। इसमें बहन अपनी पुत्री या पुत्र का विवाह करती है तो उसका भाई अपनी बहन को मायरा ओढ़ाता है जिसमें वह उसे कपड़े, आभूषण आदि बहुत सारी भेंट देता है एवं उसे गले लगाकर प्रेम स्वरुप चुनड़ी ओढ़ाता है। साथ ही उसके बहनोई एवं उसके अन्य परिजनों को भी कपड़े भेंट करता है।
डावरिया प्रथा
यह रिवाज अब समाप्त हो चुका है। इसमें राजा-महाराजा और जागीरदार अपनी पुत्री के विवाह में दहेज के साथ कुँवारी कन्याएं भी देते थे जो उम्र भर उसकी सेवा में रहती थी। इन्हें डावरिया कहा जाता था।
नाता प्रथा
कुछ जातियों में पत्नी अपने पति को छोड़ कर किसी अन्य पुरुषके साथ रह सकती है। इसे नाता करना कहते हैं। इसमें कोई औपचारिक रीति रिवाज नहीं करना पड़ता है। केवल आपसी सहमति ही होती है। विधवा औरतें भी नाता कर सकती है।
नांगल
नवनिर्मित गृहप्रवेश की रस्म को नांगल कहते हैं।
मौसर
किसी वृद्ध की मृत्यु होने पर परिजनों द्वारा उसकी आत्मा की शांति के लिए दिया जाने वाला मृत्युभोज मौसर कहलाता है।
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Description of the chief public dance of Rajasthan-राजस्थान के प्रमुख लोक नृत्यो का वर्णन

राजस्थान एक भौगोलिक एवं सांस्कृतिक विविधतायुक्त प्रदेश है । इसी विविधता ने इस प्रदेश के लोक नृत्यों को भी विविधता प्रदान की है और अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नृत्य विकसित हुए । ये प्रमुख लोकनृत्य इस प्रकार हैं-

1. घूमर नृत्य -

यह पूरे राज्य में लोकप्रिय है तथा मांगलिक अवसरों व त्योहारों पर महिलाओं द्वारा किया जाता है। इसमें लहँगा पहने स्त्रियाँ गोल घेरे में लोकगीत गाती हुई नृत्य करती है । जब ये महिलाएँ विशिष्ट शैली में नाचती है तो उनके लहँगे का घेर एवं हाथों का संचालन अत्यंत आकर्षक होता है। लहंगे के घेर को कुंभ कहते है।

2. गैर नृत्य -

यह होली के दिनों में मेवाड़ एवं बाड़मेर में खेला जाता है। यह पुरुषों का नृत्य है । गोल घेरे में इसकी संरचना होने के कारण ही इसे 'गैर' कहा जाता है । इसमें पुरुषों की टोली हाथों में लंबी डंडियां ले कर ढोल व थाली-माँदल वाद्य की ताल पर वृत्ताकार घेरे में नृत्य करते हुए मंडल बनाते हैं । इस नृत्य में तेजी से पद संचालन और डंडियोँ की टकराहट से तलवारबाजी या पट्टयुद्ध का आभास होता है। मेवाड़ एवं बाड़मेर में गैर की मूल रचना समान है किंतु नृत्य की लय, ताल और मंडल में अंतर होता है।

3. अद्भुत कालबेलिया नृत्य-

"कालबेलिया" राजस्थान की एक अत्यंत प्रसिद्ध नृत्य शैली है। कालबेलिया सपेरा जाति को कहते हैं । अतः कालबेलिया सपेरा जाति का नृत्य है। इसमें गजब का लोच और गति होती है जो दर्शक को सम्मोहित कर देती है । यह नृत्य दो महिलाओं द्वारा किया जाता है। पुरुषनृत्य के दौरान बीन व ताल वाद्य बजाते हैं। इस नृत्य में कांच के टुकड़ों व जरी-गोटे से तैयार काले रंग की कुर्ती, लहंगा व चुनड़ी पहनकर सांप की तरह बल खाते हुए नृत्य की प्रस्तुति की जाती है। इस नृत्य के दौरान नृत्यांगनाओं द्वारा आंखों की पलक से अंगूठी उठाने, मुंह से पैसे उठाना, उल्टी चकरी खाना आदि कलाबाजियां दिखाई जाती है। केन्या की राजधानी नैरोबी में नवंबर, 2010 में हुई अंतरसरकारी समिति की बैठक में यूनेस्को ने कालबेलिया नृत्य को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की प्रतिनिधि सूची में भी शामिल किया है। इस नृत्य को विशेष पहचान नृत्यांगना 'गुलाबो' ने दिलाई, जिन्होंने देश में ही नहीं विदेशों में भी अपनी कलाकारी दिखाई।

4. शेखावटी का गींदड़ नृत्य-

शेखावटी का लोकप्रिय नृत्य है । यह विशेष तौर पर होली के अवसर पर किया जाता है। चुरु, झुंझुनूं , सीकर जिलों में इस नृत्य के सामूहिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं । नगाड़ा इस नृत्य का प्रमुख वाद्य है । नर्तक नगाड़े की ताल पर हाथों में डंडे ले कर उन्हें टकराते हुए नाचते हैं । नगाडे की गति बढ़ने के साथ यह नृत्य भी गति पकड़ता है । इस नृत्य में साधु, सेठ-सेठानी, दुल्हा-दुल्हन, शिकारी आदि विभिन्न प्रकार के स्वांग भी निकाले जाते हैं ।

5. मारवाड का डांडिया नृत्य-

मारवाड के इस लोकप्रिय नृत्य में भी गैर व गींदड़ नृत्यों की तरह डंडों को आपस में टकराते हुए नर्तन होता है तथा यह भी होली के अवसर पर पुरुषों द्वारा किया जाता है किन्तु पद संचालन, ताल-लय,गीतों और वेशभूषा की दृष्टि से ये पूर्णतया भिन्न हैं। इस नृत्य के समय नगाडा और शहनाई बजाई जाती है ।

6. कामड़ जाति का विशिष्ट तेरहताली नृत्य-

तेरहताली 
यह एक ऐसा नृत्य है जो बैठ कर किया जाता है । इस अत्यंत आकर्षक नृत्य में महिलाएँ अपने हाथ, पैरों व शरीर के 13 स्थानों पर मंजीरें बाँध लेती है तथा दोनों हाथों में बँधे मंजीरों को गीत की ताल व लय के साथ तेज गति से शरीर पर बँधे अन्य मंजीरो पर प्रहार करती हुई विभिन्न भाव-भंगिमाएं प्रदर्शित करती है। इस नृत्य के समय पुरुष तंदूरे की तान पर रामदेव जी के भजन गाते हैं ।

7. उदयपुर का भवई नृत्य-

चमत्कारिकता एवं करतब के लिए प्रसिद्ध यह नृत्य उदयपुर संभाग में अधिक प्रचलित है। नाचते हुए सिर पर एक के बाद एक, सात-आठ मटके रख कर थाली के किनारों पर नाचना, गिलासों पर नृत्य करना, नाचते हुए जमीन से मुँह से रुमाल उठाना, नुकीली कीलों पर नाचना आदि करतब इसमें दिखाए जाते हैं।

8. जसनाथी संप्रदाय का अग्नि नृत्य-

यह नृत्य जसनाथी संप्रदाय के लोगों द्वारा रात्रिकाल में धधकते अंगारों पर किया जाता है। नाचते हुए नर्तक कई बार अंगारों के ऊपर से गुजर जाता है। नाचते हुए ही वह अंगारों को हाथ में उठाता है तथा मुँह में भी डाल लेता है। यह नृत्य पुरुषों द्वारा ही किया जाता है।

9. जालोर का ढोल नृत्य-

जालोर के इस प्रसिद्ध नृत्य में 4 या 5 ढोल एक साथ बजाए जाते हैं । सबसे पहले समूह का मुखिया ढोल बजाता है। तब अलग अलग नर्तकों में से कोई हाथ में डंडे ले कर, कोई मुँह में तलवार ले कर तो कोई रूमाल लटका कर नृत्य करता है । यह नृत्य अक्सर विवाह के अवसर पर किया जाता है ।

10. चरी नृत्य-

राजस्थान के गाँवों में पानी की कमी होने के कारण महिलाओं को कई किलोमीटर तक सिर पर घड़ा (चरी) उठाए पानी भरने जाना पड़ता है । इस नृत्य में पानी भरने जाते समय के आल्हाद और घड़ोँ के सिर पर संतुलन बनाने की अभिव्यक्ति है। इस नृत्य में महिलाएँ सिर पर पीतल की चरी रख कर संतुलन बनाते हुए पैरों से थिरकते हुए हाथों से विभिन्न नृत्य मुद्राओं को प्रदर्शित करती है। नृत्य को अधिक आकर्षक बनाने के लिए घडे के ऊपर कपास से ज्वाला भी प्रदर्शित की जाती है ।

11. कठपुतली नृत्य-

इसमें विभिन्न महान लोक नायकों यथा महाराणा प्रताप, रामदेवजी, गोगाजी आदि की कथा अथवा अन्य विषय वस्तु को कठपुतलियों के माध्यम से प्रदर्शित किया जाता है। यह राजस्थान की अत्यंत लोकप्रिय लोककला है। यह उदयपुर में अधिक प्रचलित है।

12. गरासिया जनजाति का वालर नृत्य-

वालर गरासिया जनजाति का एक महत्वपूर्ण नृत्य है । यह घूमर नृत्य का एक प्रतिरूप है । इसमें माँदल, चंग व अन्य वाद्य यंत्रों की थाप पर नर्तक अपने कौशल का प्रदर्शन करते हुए थिरकते हैं।

13. चंग नृत्य -

पुरुषों के इस नृत्य में प्रत्येक पुरुषके हाथ में एक चंग होता है और वह चंग बजाता हुआ वृत्ताकार घेरे में नृत्य करता है। इस दौरान एक वादक बाँसुरी भी बजाता रहता और सभी होली के गीत व धमाल गाते हैं।

14. कच्छी घोड़ी नृत्य-

कच्छी घोड़ी नृत्य में ढाल और लम्बी तलवारों से लैस नर्तकों का ऊपरी भाग दूल्हे की पारम्परिक वेशभूषा में रहता है और निचले भाग में बाँस के ढाँचे पर कागज़ की लुगदी से बने घोड़े का ढाँचा होता है। यह ऐसा आभास देता है जैसे नर्तक घोड़े पर बैठा है। नर्तक, शादियों और उत्सवों पर नाचता है। इस नृत्य में एक या दो महिलाएँ भी इस घुड़सवार के साथ नृत्य करती है। कभी कभी दो नर्तक बर्छेबाज़ी के मुक़ाबले का प्रदर्शन भी करते हैं।

15. पनिहारी नृत्य-

पनिहारी का अर्थ होता है पानी भरने जाने वाली। पनिहारी नृत्य घूमर नृत्य के सदृश्य होता है। इसमें महिलाएँ सिर पर मिट्टी के घड़े रखकर हाथों एवं पैरों के संचालन के साथ नृत्य करती है। यह एक समूह नृत्य है और अक्सर उत्सव या त्योहार पर किया जाता है।

16. बमरसिया या बम नृत्य-

यह अलवर और भरतपुर क्षेत्र का नृत्य है और होली का नृत्य है। इसमें दो व्यक्ति एक नगाड़े को डंडों से बजाते हैं तथा अन्य वादक थाली, चिमटा, मंजीरा,ढोलक व खड़ताल आदि बजाते हैं और नर्तक रंग बिरंगे फूंदों एवं पंखों से बंधी लकड़ी को हाथों में लेकर उसे हवा में उछालते हैं। इस नृत्य के साथ होली के गीत और रसिया गाए जाते हैं । बम या नगाड़े के साथ रसिया गाने से ही इसे बमरसिया कहते हैं।

17. हाड़ौती का चकरी नृत्य-

यह नृत्य हाड़ौती अंचल (कोटा,बारां और बूंदी) की कंजर जाति की बालाओं द्वारा विभिन्न अवसरों विशेषकर विवाह के आयोजन पर किया जाता है। इसमें नर्तकी चक्कर पर चक्कर घूमती हुई नाचती है तो उसके घाघरे का लहराव देखते लायक होता है। लगभग पूरे नृत्य में कंजर बालाएं लट्टू की तरह घूर्णन करती है। इसी कारण इस नृत्य को चकरी नृत्य कहा जाता है। इस नृत्य में ढफ, मंजीरा तथा नगाड़े वाद्य का प्रयोग होता है।

18. लूर नृत्य-

मारवाड का यह नृत्य फाल्गुन माह में प्रारंभ हो कर होली दहन तक चलता है। यह महिलाओं का नृत्य है। महिलाएँ घर के कार्य से निवृत हो कर गाँव में नृत्य स्थल पर इकट्ठा होती है एवं उल्लास के साथ एक बड़े घेरे में नाचती हैं।

19. घुड़ला नृत्य-

यह मारवाड का नृत्य है जिसमें छेद वाले मटकी में दीपक रख कर स्त्रियाँ टोली बना कर पनिहारी या घूमर की तरह गोल घेरे में गीत गाती हुई नाचती है। इसमें धीमी चाल रखते हुए घुड़ले को नजाकत के साथ संभाला जाता है। इस नृत्य में ढोल, थाली, बाँसुरी, चंग, ढोलक, नौबत आदि मुख्य हैं। यह नृत्य मुख्यतः होली पर किया जाता है जिसमें चंग प्रमुख वाद्य होता है। इस समय गाया जाने वाला गीत है - "घुड़लो घूमै छः जी घूमै छः , घी घाल म्हारौ घुड़लो ॥"

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